रत्नों को रत्न
कुछ लोग ऐसें होते हैं जिन्हें सम्मान देने से सम्मान भी सम्मानित हो जाता है। इस साल का भारत रत्न पाने वाले दोनो महानुभाव ऐसे हैं जो अतुलनीय हैं। प्रख्यात शिक्षाविद तथा स्वतंत्रता सेनानी महामना मदन मोहन मालवीय और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दोनों की ही शख्सियत अद्भुद है। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में बेमिशाल हैं। वाजपेयी को भारत रत्न दिये जाने की घोषणा के साथ ही स्वाभाविक रुप से उनके अनोखे व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण होता है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ऐसा कि पार्टी के अंदर ही नहीं बल्कि विरोधियों के बीच भी सहज स्वीकार्य और भरोसा पैदा करने वाला नेता, ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है। प्रधानमंत्री बनने के पहले बाजपेयी ने तकरीबन चार दसकों तक विपक्ष के नेता के रूप में अपनी जैसी धाक जमाई उसकी मिसाल मिलना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। किसी भी नेता के लिये यह बहुत अहम है कि उसके राजनीतिक विरोधी भी उसकी खूबियों की याद करते हैं। अटलजी कि दृष्टि जिस तरह देश के लिये अद्भुत थी ठीक उसी तरह विश्व दृष्टि भी। प्रधानमंत्री रहते हुये उन्होंने कई ऐसी मिसालें कायम कीं जिसको आज भी याद किया जाता है। चाहे वह बात पाकिस्तान के संदर्भ में पड़ोसी न बदल सकने वाले जुमले की हो या फिर अमेरिका को स्वाभाविक सहयोगी बताने की दोनों ही बेजोड़ थी। आज स्थिति यह है कि इस सबके उल्लेख के बगैर बात पूरी नहीं होती। अटल बिहारी वाजपेयी केंद्र में गैरकांग्रेसवाद के सबसे विराट, सबसे स्वीकार्य और सबसे सम्मानित व्यक्तित्व रहे हैं। उनकी मौलिक सोच और लीक से हटकर चलने की कला बेमिशाल रही। उनकी वैचारिक उदारता उनके व्यक्तित्व की ऐसी पूंजी है, जो संकीर्ण राजनीति के इस दौर में विरल है। बतौर प्रधानमंत्री उनका कार्यकाल छह साल रहा। यह कार्यकाल भारतीय राजनीति और प्रशासन में अपनी अमिट छाप छोड़ गया। दूसरी तरफ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके मदन मोहन मालवीय ने स्वतंत्रता संग्राम में बड़ी भूमिका निभाई थी। महात्मा गांधी के नजदीकी रहे। महामना की उपाधि से नवाजे गये। शिक्षाविद के तौर पर उन्होंने देश को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसी एक विराट कालजयी शिक्षा संस्था दी। वह हिंदू महासभा से भी जुड़े रहे, परंतु उनके हिंदू राष्ट्रवाद में सभी धर्मों और संप्रदायों के लिए समान जगह थी। यह अपने आप में हैरान कर देने वाला है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी उनको शीर्ष नागरिक सम्मान नहीं मिला था। देर से ही सही पर फैसला ठीक लिया गया। इस दोनों महानुभावों को देश का शीर्ष नागरिक सम्मान देने का फैसला स्वागतयोग्य कदम है। यदि अटल बिहारी बाजपेयी को यह सम्मान यूपीए सरकार द्वारा दिया जाता तो यह और अच्छा होता।
– गुरमीत सिंह
मोदी का जादू
झारखंड और जम्मू-कश्मीर में हुये विधान सभा चुनावों में एक बार फिर भाजपा और नरेंद्र मोदी का जादू चला। जम्मू-कश्मीर में भाजपा आजादी के बाद पहली बार दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। वहीं झारखंड में भी नया राज्य बनने के बाद पहली बार भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया। यह दोनों ही उपलब्धियां यह बताती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू अभी भी बरकरार है। एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर में भाजपा की यह कामयाबी काफी अहमियत रखती है। इसलिए और भी अधिक, क्योंकि वोट प्रतिशत के हिसाब से वह पहले नंबर पर रही। इन दोनों राज्यों में भाजपा की कामयाबी का अधिक श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजे इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि लोकसभा चुनावों के छह माह बाद भी देश की जनता का मोदी पर भरोसा बरकरार है। इतना ही नहीं महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजे यह भी बताते हैं कि मुख्यमंत्री पद के चेहरे के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। परंतु इसके साथ यह भी सच है कि इसके लिये मोदी जैसा कोई चमत्कारी नेता होना चाहिये। मोदी विरोधी इस बात की खुशी मना सकते हैं कि उनको उतनी कामयाबी नहीं हासिल हुई जिसकी उम्मीद की जा रही थी, लेकिन उनको यह तो सोचना ही पड़ेगा कि कामयाबी उनके ही हाथ लगी। विपक्षी पार्टियों को अब मोदी के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप से बचना होगा। उनको यह समझ लेना चाहिये कि मोदी कि जनता उनके इस अनर्गल प्रलापों पर ध्यान नहीं दे रही है, इस समय देश की जनता का ध्यान इस तरफ है कि उसके जीवन में खुशहाली कौन ला सकता है। यह गौर करने लायक है कि जो जनता परिवार पिछले दिनों दिल्ली में इकट्ठा होकर भाजपा से लड़ने की बात कर रहा था उसको झारखंड में एक भी सीट नहीं मिली। विपक्ष के लिये यह अच्छा होगा कि वह मोदी सरकार पर अपने रवैये पर फिर से विचार करे। इस समय वह मोदी सरकार को घेरने के साथ यह प्रचारित करने में अतिरिक्त परिश्रम कर रहे हैं कि छह माह में कुछ भी नहीं हुआ। देश रसातल में जा रहा है। विपक्ष का यह रवैया लोगों के समझ से परे है। खासकर कांग्रेस के लिये यह आत्ममंथन का समय है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वह इमानदारी से आत्ममंथन नहीं कर पा रही है।
– कृष्ण ध्यान त्रिपाठी